प्रमोद भार्गव

साठ के दशक में ‘नए भारत के तीर्थ’ माने गए बड़े बांध आजकल किस तरह की त्रासदी रच रहे हैं, इसे देखना-समझना हो तो केवल उत्तराखंड की यात्रा काफी होगी। गंगा और उसकी अनेक सहायक नदियों पर जल-विद्युत, सिंचाई और बाढ़-नियंत्रण की खातिर ताने जा रहे असंख्य बड़े बांधों ने हिमालय का जीना मुहाल कर दिया है।

केरल के बाद देवभूमि उत्तराखंड में भारी बारिश ने जबरदस्त तबाही मचाई है। प्रमुख पर्यटन स्थल नैनीताल जिले के रामगढ़ में बादल फटने से हुई भीषण बारिश के बाद बाढ़, भू-स्खलन और रिहायशी घरों के गिरने से करीब आधा सैंकड़ा लोगों की मौत हो गई। कुमाऊं क्षेत्र में जल ने सबसे ज्यादा तांडव मचाया है। सौ से ज्यादा घर, इतनी ही सड़कें और दर्जनों पुल क्षतिग्रस्त हो गए। थलसेना और वायुसेना के वायुदूत फंसे लोगों को निकाल रहे हैं। इस जल-प्रलय के चलते बद्रीनाथ मंदिर में ढाई हजार श्रद्धालुओं ने शरण ली हुई है।

ये सब आपदाएं उस आधुनिक और औद्योगिक विकास की देन है, जिसे वर्तमान भोग-विलास के जीवन के लिए जरूरी माना जा रहा है। अर्थात हम अपनी मौत की खाई खुद गहरी करते जा रहे हैं। आश्चर्य है कि जिस मौसम विभाग की सटीक जानकारी के लिए अनेक उपग्रह और कंप्युटरीकृत दफ्तरों पर अरबों का निवेश किया गया है, वे भी इस आपदा की पूर्व सूचना देने में असफल रहे हैं। उत्तराखंड और समूचे हिमालय क्षेत्र में अपदाओं का सिलसिला निरंतर बना हुआ है।

जून 2013 में केदारनाथ में ऐसी ही जल-प्रलय के चलते हजारों श्रद्धालु मारे गए थे। इसी साल फरवरी 2021 में चमौली में ग्लेशियरों के फटने से जल-विद्युत परियोजनाओं में काम करने वाले 33 लोग मारे गए थे और करीब दो सौ आज भी लापताओं की सूची में दर्ज हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं।

हिमाचल और उत्तराखंड में जल-विद्युत परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक हिदायतें देते रहे कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो प्रदूषित होगी ही, हिमालय का भी पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा सकता है? लेकिन औद्योगिक-प्रोद्यौगिक विकास के लिए इन्हें नजरअंदाज किया गया। इसीलिए 2013 में केदारनाथ दुर्घटना के सात साल बाद ऋषिगंगा परियोजना पर बड़ा हादसा हुआ था। इस हादसे ने डेढ़ सौ लोगों के प्राण तो लीले ही, संयंत्र को भी पूरी तरह ध्वस्त कर दिया, जबकि इस संयंत्र का 95 प्रतिशत काम पूरा हो गया था।

उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल-विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जाता है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंबे व दीवारें खड़े किए जाते हैं। इन गड्ढों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन तेज बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडो के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ जाती हैं।

गंगा की अविरल धारा पर उमा भारती ने तब चिंता की थी, जब केंद्र में ‘संप्रग’ की सरकार थी और डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। उत्तराखंड के श्रीनगर में जल-विद्युत परियोजना के चलते धारादेवी का मंदिर डूब में आ रहा था। इस डूबती देवी को बचाने के लिए उमा धरने पर बैठ गई थीं। अंत में सात करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान करके, मंदिर को स्थांनातरित कर सुरक्षित कर लिया गया। उमा भारती ने 24 ऊर्जा संयंत्रों पर रोक के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान 2016 में, जल-संसाधन मंत्री रहते हुए, केंद्र सरकार की इच्छा के विपरीत, शपथ-पत्र के जरिए यह कहने की हिम्मत दिखाई थी कि उत्तराखंड में अलकनंदा, भागीरथी, मंदाकिनी और गंगा नदियों पर जो भी बांध एवं जल-विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं, वे खतरनाक भी हो सकती हैं।

उमा भारती की इस इबारत के विरुद्ध पर्यावरण और ऊर्जा मंत्रालय ने एक हलफनामे में कहा था कि बांधों का बनाया जाना खतरनाक नहीं है। इस कथन का आधार 1916 में हुए उस समझौते को बनाया गया था जिसमें कहा गया था कि नदियों में यदि एक हजार क्यूसेक पानी का बहाव बनाए रखा जाए तो बांध बनाए जा सकते हैं। किंतु इस हलफनामे को प्रस्तुत करते हुए यह ध्यान नहीं रखा गया कि सौ साल पहले इस समझौते में समतल क्षेत्रों में बांध बनाए जाने की परिकल्पनाएं अंतर्निहित थीं। उस समय हिमालय क्षेत्र में बांध बनाने की कल्पना किसी ने की ही नहीं थी।  

इन शपथ-पत्रों को देते समय 70 नए ऊर्जा संयंत्रों को बनाए जाने की तैयारी चल रही थी। दरअसल परतंत्र भारत में जब अंग्रेजों ने गंगा किनारे उद्योग लगाने और गंगा पर बांध व पुलों के निर्माण की शुरूआत की, तब पंडित मदनमोहन मालवीय ने गंगा की जलधार अविरल बहती रहे, इसकी चिंता करते हुए 1916 में फिरंगी हुकूमत को यह अनुबंध करने के लिए बाध्य किया था कि गंगा में हर वक्त, हर क्षेत्र में 1000 क्यूसेक पानी अनिवार्य रूप से निरंतर बहता रहे। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर टिहरी जैसे सैकड़ों छोटे-बड़े बांध और बिजली संयंत्रों की स्थापना के लिए गंगा और उसकी सहायक नदियों की धाराएं कई जगह अवरुद्ध कर दी गईं हैं।      

दरअसल भारत समेत दुनिया के आधे से ज्यादा बांध बूढ़े हो चुके हैं और जो नए बांध निर्माणाधीन हैं, उन्हें भी एक समय बूढ़ा व जर्जर हो जाना है। भारत, अमेरिका, फ्रांस, चीन समेत सात से अधिक देशों में औसत उम्र पूरी कर चुके बांधों से करोड़ों लोगों की जिंदगी के सिर पर मौत का खतरा मंडरा रहा है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने ‘जल संरचना आयु रिपोर्ट’ (एजिंग वॉटर इंफ्रास्ट्रक्चर), कनाडा के एक संस्थान के साथ तैयार की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2025 तक दुनिया में ऐसे हजारों बांध होंगे, जिनकी उम्र पचास वर्ष से अधिक होगी। इनमें से अनेक बांध जर्जर अवस्था में पहुंच चुके हैं, जो मरम्मत के अभाव में कभी भी टूटकर लाखों जिंदगियां लील सकते हैं।

भारत में 1115 ऐसे बांध हैं, जिनकी आयु पचास वर्ष हो चुकी हैं। दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका व पूर्वी यूरोप में ऐसे अनेक बांध हैं, जिनकी उम्र 100 साल होने जा रही है। सात एशियाई देशों के कुल 58,700 बांधों में से ज्यादातर का निर्माण 1930 से 1970 के बीच हुआ है। इस्पात, सीमेंट और कंक्रीट से बने बांधों की उम्र पचास से 100 साल होती है। चीन, भारत, जापान, कोरिया और पाकिस्तान में ऐसे 32,716 बांध हैं, जो अपनी उम्र पूरी कर रहे हैं। केरल का मूल्लापेरियर बांध 100 साल से ज्यादा का हो चुका है, यदि यह टूटता है तो 35 लाख लोगों की जान को खतरा हो सकता है। वैसे भी भारत में बांधों के टूटने से हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं।

देशभर के बांधों को सुरक्षित बनाए रखने की दृष्टि से भारत सकार ने 10,211 करोड़ रुपए का बजट आबंटित किया है। यह धन ‘बांध पुनर्वास और सुधार कार्यक्रम’ (डीआरआईपी) के अंतर्गत दिया गया है। चीन और अमेरिका के बाद भारत बांधों के लिहाज से तीसरे स्थान पर है जहां कुल 5,745 बांध हैं। इनमें से ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की रिपोर्ट ने 1115 बांधों की हालत खस्ता बताई है। देश में 973 बांधों की उम्र 50 से 100 वर्ष के बीच है, जो 18 प्रतिशत बैठती है। 973 यानी 56 फीसदी ऐसे बांध हैं, जिनकी आयु 25 से 50 वर्ष हैं। शेष 26 प्रतिशत बांध 25 वर्ष से कम आयु के हैं, जिन्हें मरम्मत की अतिरिक्त जरूरत नहीं है।

दरअसल पुराने और ज्यादा जल-दबाव वाले बांधों की मरम्मत इसलिए जरूरी है, क्योंकि बरसात में अधिक मात्रा में पानी भर लेने पर इनके टूटने का खतरा बना रहता है। बांधों की उम्र पूरी होने पर रख-रखाव का खर्च बढ़ता है, लेकिन जल भंडारण क्षमता घटती है। बांध बनते समय उनके आसपास आबादी नहीं होती, लेकिन बाद में बढ़ती जाती है। नदियों के जल बहाव के किनारों पर आबाद गांव, कस्बे एवं नगर होते हैं। ऐसे में अचानक बांध टूटता है तो लाखों लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं। उत्तराखंड व हिमाचल में भारी बारिश से पहाड़ों के दरकने और हिमखंडों के टूटने से जो त्रासदियां सामने आ रही हैं, उस परिप्रेक्ष्य में भी नए बांधों के निर्माण से बचने की जरूरत है।(सप्रेस)

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प्रमोद भार्गव
स्वतंत्र लेखक और पत्रकार हैं। लेखन में किशोरावस्था से ही रुचि रही। पहली कहानी मुम्बई से प्रकाशित नवभारत टाइम्स में छपी। फिर दूसरी प्रमुख कहानी ‘धर्मयुग’ में और सिलसिला चल निकला। 1987 में ‘जनसत्ता’ में पत्रकारिता से जुड़ गए। जिला एवं प्रदेश स्तरीय पत्रकरिता करते हुए धर्मयुग में भी कई रपटें लिखीं। सम्प्रति सम्पादक, शब्दिता संवाद सेवा, संवाददाता आज तक, शिवपुरी से जुडे है। देश के हिंदी अखबारों के लिए स्‍वतंत्र लेखन करते है। सप्रेस से बहुत प्रारंभ से जुडे हुए है।

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