अभिलाष खांडेकर

हमारे किसी भी आकार-प्रकार के शहरों में चंद मिनटों की बरसात बाढ ला देती है और यह कारनामा पानी के प्राकृतिक स्रोतों, ठिकानों और सहज रास्‍तों पर अट्टालिकाएं खडी करने से होता है। कमाल यह है कि इसे अमली जामा पहनाने वाले हमारे नगर-नियोजकों को फिर भी कोई होश नहीं आता। मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल आजकल इसी तरह के नगर-नियोजकों और उन्‍हें उकसाने वाले राजनेताओं की जिद से निपट रही है। प्रस्‍तुत है, इसी विषय की गंभीर पडताल करता अभिलाष खांडेकर का यह लेख।–संपादक

अमेरिका के शिकागो शहर का इतिहास जानते हुए मुझे पता चला था कि एक बार शहर का काफ़ी हिस्सा जल जाने के बाद नगर नियोजकों ने कैसे शहरवासियों की मदद से फिर से शहर को बनाया। शिकागो नदी के किनारे के इस शहर को नए सिरे से बसाने में डैनीअल बर्नहम की महती भूमिका रही। उन्होंने ही 1909 में जो विकास योजना बनाई उसे नगर-नियोजन के वैश्विक इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। ‘द प्लान ऑफ़ शिकागो’ नाम से एक सुंदर पुस्तक कॉर्ल स्मिथ नामक लेखक ने योजना लागू होने व शिकागो शहर की अच्छी नगर-नियोजन प्रणालियों के चलते प्रगति और नाम हासिल करने के लगभग 100 वर्ष बाद लिखी। उक्त पुस्तक पढ़ने के बाद मेरी दिलचस्पी नगर-नियोजन में और अधिक बढ़ी।

इंदौर का होने के कारण मैंने स्कॉटिश नगर-नियोजक सर पैट्रिक गेडेज़ के बारे में काफ़ी पढ़-सुन रखा था। गेडेज़ साहब ने ही होलकर महाराज के निमंत्रण पर इंदौर का पहला प्लान 1914-16 के बीच बनाया था। गेडेज़ ने इंदौर के अलावा देश के 50-55 शहरों की योजनाएं बनाई थीं, जो एक दुर्लभ कीर्तिमान है। यह दुर्भाग्य ही है कि उन्हें आज की पीढ़ी कम ही जानती है। इंदौर का वह प्लान भी अपने ज़माने का शहरी नियोजन का उम्‍दा दस्तावेज़ है।

शहरों की बसाहट का विज्ञान, शहरी प्रणालियाँ एवं नगरीय विकास का रूप समय के साथ-साथ  बदलता रहा है। मनुष्य की प्रगति के साथ विज्ञान और तकनीक भी बदलते गए जिसका प्रभाव हमारे शहरों पर दिखना स्वाभाविक है। नगर-नियोजन के सिद्धांत और परिकल्पनाएं ज़रूर बदलते गए, किंतु जो बात नहीं बदली वह है-नागरिक-कल्याण का मूल उद्देश्य। क्या आज आम शहरी व्यक्ति के बारे में वाक़ई नगर-नियोजक सोचते हैं? मामला चाहे नए शहर अमरावती (आंध्रप्रदेश) का हो या ‘नया रायपुर’ का, पुराने गुरुग्राम अथवा भोपाल का, सभी शहरों में नगर नियोजन की प्रक्रिया में से आम आदमी अक्सर नदारद दिखता है। उसकी सहूलियत, उसकी भविष्य की आवश्यकताओं का आकलन आदि से हमारे ‘विशेषज्ञ’ नगर-नियोजक लगभग अलिप्त-से रहते हैं। वे कहाँ संलिप्त रहते हैं, सब जानते हैं। अलग-अलग योजनाओं के बावजूद तमाम शहरों के हालात चिंतनीय बने हुए हैं।

शहरीकरण की बेहद तेज़ रफ़्तार के चलते पूरी दुनिया के साथ भारत में भी नगर-नियोजन का महत्व असाधारण रूप से बढ़ा है। बड़ी तादाद में लोग गाँव से शहरों की ओर भाग रहे हैं। शहर भी जनसंख्या के बढ़ते दबाव में मुश्किल से साँस ले पा रहे हैं। इसके दो मुख्य कारण हैं: एक, ग्रामीण विकास की अवधारणा की बड़ी असफलता और दूसरा, शहरों पर सरकारों द्वारा अत्यधिक ‘फ़ोकस।’ इसी बीच ‘स्मार्ट सिटी’ जैसी योजनाओं में ग्रामीण भारतीयों को ऐसा सपना दिखा मानो शहरों पर कोई जादुई छड़ी घुमाई गई हो जो रोज़गार, खाद्य-सुरक्षा से लेकर मनोरंजन तक सारी समस्याओं का समाधान करती हो। हाल की अप्रत्याशित शहरबंदी (लॉकडॉउन) के समय तेलंगाना से राजस्थान या महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश के दूरस्थ ग्रामीण इलाक़ों में लाखों की तादाद में पहुँचे मज़दूर यही बता गए कि ग्रामीण भारत के हालात इतने ख़राब हैं कि रोज़ी-रोटी की तलाश में भारत के हर छोटे-बड़े शहर में जाकर रहना उनकी मजबूरी है। लॉकडॉउन ने उन्हें दयनीय हालात में वापस ‘घर’ की ओर मोड़ दिया है, लेकिन किसी सरकार ने इस वृहद सामाजिक समस्या की ज़िम्मेदारी अपने सिर नहीं ली।

भारतीय शहरों की समस्याएँ लगभग एक जैसी ही हैं। मुम्‍बई, कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली जैसे विकराल महानगरों को छोड़ भी दें, तब भी पुणे, गोरखपुर, बड़ोदरा, ग्वालियर, बिलासपुर या ग़ाज़ियाबाद के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। पानी, पर्यावरण, कचरा, धूल, यातायात समस्या, अपराध, जन-स्वास्थ्य, बाढ़ – ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो नगरीय प्रशासन और शायद उससे भी पहले नगर नियोजनकर्ताओं की नाकामी का परिणाम हैं। संविधान के 74वें संशोधन (1992) के से एक आशा बंधी थी कि क़ानूनी अधिकार सम्पन्न स्थानीय संस्थाएँ नगरीय नियोजन और प्रशासन में सुधार करेंगी। कुछ हद तक हुआ भी, किंतु यदि आम राय को जानने की कोशिश हो तो पता लगेगा की नागरिकों की समस्याओं का अंबार जस-का-तस है।

जलवायु परिवर्तन के इस नए दौर में शहरी पर्यावरण एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा बनकर उभरा है। हाल में हुई भारी वर्षा ने दोषपूर्ण नगर नियोजन की पोल खोलकर रख दी थी। बेंगलुरू और गुरुग्राम से भोपाल तक हालात एक जैसे थे। गुरुग्राम में 2016 में भी अचानक हुई तेज़ बारिश ने नागरिकों को सड़कों पर भरे पानी में, बंद गाड़ी में लगभग २४ घंटे रहने पर मजबूर किया था। उत्तर-भारत की सूचना प्रोदयोगिकी की राजधानी के ऐसे हालात अकल्पनीय थे। ग़लत नगर-नियोजन का ख़ामियाज़ा जनता को भुगतना पड़ा था। ठीक वैसे ही जैसे जुलाई 2005 में मुंबई की जनता ने भुगता था। ‘मुम्‍बई’ से देश ने और स्वयं महाराष्ट्र ने कोई सबक़ नहीं सीखा, यह एक कड़वा सत्य है।

अब बात भोपाल की। यहाँ विकास योजना (मास्टर प्लान) क़रीब 25 बरस से अटकी पड़ी थी क्योंकि कतिपय बड़े लोगों ने बड़े तालाब व केरवा के वन क्षेत्र पर ‘क़ानूनी अतिक्रमण’ करने की योजना बनाई थी। वर्ष 1995-2005 की योजना ही अभी तक लागू है जिसके चलते राजधानी का ‘विकास’ बेतरतीबी से हो रहा है। वर्ष 2010 में जो योजना बनी उसके प्रारूप को सरकार ने नाराज़ होकर विभाग को लौटा दिया था। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने स्वयं फ़ैसला लिया और पर्यावरण (मुख्य रूप से बड़े तालाब) व इतर मुद्दों को आधार बनाकर योजना निरस्त कर दी थी। उस समय सभी ने उनकी प्रशंसा की थी। फिर कॉंग्रेस  सरकार ने ज़रूर एक योजना बनाई, किंतु उसमें कई गड़बड़ियाँ हैं। प्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेन्द्र सिंह ने गड़बड़ियों को स्वीकार भी किया, किंतु भाजपा शासन के मंत्री होने के बावजूद अभी तक किया कुछ भी नहीं। वे सिर्फ़ अपना चार इमली स्थित बंगला पुनः एक बार, जनता के पैसे से, चमकाने में लगे हुए हैं।

समय, काल, जनसंख्या, सामाजिक-आर्थिक और औद्योगिक ज़रूरतें अब बदल गई हैं। हड़प्पा-क़ालीन परिस्थियाँ आज नहीं हैं, किंतु सही नियोजन तथा पर्यावरण का महत्व अब कई गुना बढ़ गया है। लेकिन नई विकास योजना (2031) को पढ़कर ऐसा लगता है कि सरकारी नगर नियोजक, छोटे-मोटे लालच में भोपाल के सुंदर प्राकृतिक पर्यावरण को बिगाड़ने पर आमादा हैं। इस शहर का विकास इसकी पर्यावरणीय महत्‍ता की अनदेखी करके नहीं हो सकता। हाल ही में जारी योजना में फिर पुरानी ग़लती दोहराई जा रही है।

तीन पुस्तकों और कई नक़्शों के साथ जारी इस योजना की चिकनी-चुपड़ीं बातों से लगता है, जैसे भोपाल का 2031 और उससे आगे का बेहतर भविष्य इस दस्तावेज़ में ही समाहित है, लेकिन असल बात यह है कि अंतर्राष्‍ट्रीय दर्जे (रामसर साइट) के बड़े तालाब के साथ पुनः एक बार खिलवाड़ होने जा रहा हैं। शहर की पहचान केरवा के वनक्षेत्र भी हैं जो राष्ट्रीय पशु बाघ का नैसर्गिक अधिवास हैं। करीब 40-45 बाघ वहाँ विचरण करते हैं। उनकी सुरक्षा कौन करेगा? वहाँ भव्य निर्माण कार्य पहले ही हो चुके हैं, अब क़ानूनन ‘पीएसपी’ के तहत अनुज्ञा देने की बात है। तालाब को चारों ओर से लगभग बाँधा जा रहा है। इंदौर जाने वाली सड़क पर आज जहाँ कई सारे विवाह-मंडप हैं वहीं भविष्‍य में ऊँची अट्टालिकाएं बनेंगी तो तालाब को सीधे-सीधे गम्भीर ख़तरा होगा। फिर तालाब के दूसरे छोर पर विशाल कैचमेंट (जलग्रहण क्षेत्र) में विकास की छूट दी जा रही है। केंद्र शासन द्वारा जारी ‘वेटलेंड नियम-2017’ का यह खुल्‍लमखुल्ला उल्लंघन होगा। भोपाल के सुंदर पर्यावरण को हमारे नगर-नियोजक ग्रहण लगा रहे हैं।

यदि शहर का विकास ही करना है तो बैरसिया रोड और रायसेन रोड (विदिशा के तरफ़) के बीच क्यों नहीं हो सकता? भोपाल के तालाब और केरवा व कलियासोत के आसपास ही होना क्‍यों आवश्यक है? पिछली योजना (2005) में नेवरी, भेल, मिसरोद एवं कोलार को विकसित करने की योजना थी, किंतु ताज़ा प्रारूप (2031) के मुताबिक वहाँ अपेक्षित विकास नहीं हो पाया। साथ ही 2005 में 241 किलोमीटर सड़कें बनानी थीं, बनी सिर्फ़ 53 किलोमीटर। पुराने प्लान के मुताबिक़ तीन ट्रान्‍सपोर्ट नगर प्रारम्भ होना थे, नहीं बन पाए। फिर भी क़रीब सवा चार सौ वर्ग किलोमीटर का नया क्षेत्र, जिसमें 248 गाँव सम्मिलित हैं, इस विकास योजना में अधिग्रहीत किया जाना है।

इसमें यह भी कहा गया है कि भोपाल में छोटे आठ शहर सम्मिलित हैं–भेल, पुराना शहर, बैरागढ़, टीटी नगर, नेवरी आदि। यानी पिछले प्लान से चार अधिक। किंतु क्या भोपाल की जनसंख्या इतनी तेज़ी से बढ़ भी रही है जो यहाँ नई जमीन अधिग्रहीत की जाय और साथ-साथ मेट्रो जैसे मंहँगे प्रॉजेक्ट्स नागरिकों पर ज़बर्दस्ती लादे जायें?

जब यह योजना बन रही थी तब विभाग ने शहर के अलग-अलग क्षेत्र से, आम नागरिक और विशेषज्ञों को ‘खुले विमर्श’ के लिए बुलाया था जो एक अच्छी शुरुआत थीं। उन बैठकों में भी अधिकतर सुझाव तालाब व जंगल बचाने को लेकर ही थे, किंतु जब प्रारूप सामने आया तो फिर वही ढाक-के-तीन-पात। याने कहा कुछ, किया कुछ। जनता को फिर ठेंगा दिखाया गया।

बताते हैं कि केरवा के आसपास जो बड़ा बॉटेनिकल गार्डन का क्षेत्र पिछले प्लान (2005) में आरक्षित था, शायद किसी वज़नदार राजनीतिक व्यक्ति के लिए 2031के प्रारूप में रहवासी बनाया गया है।

विश्व भर में तालाब, नदियाँ, वृक्ष और जैव-विविधता संरक्षण पर ज़ोर-शोर से काम हो रहा है, परंतु भोपाल में इस तरफ़ शायद सरकार की दृष्टि नहीं पहुँच पा रही। इस योजना से तो ऐसा ही लगता हैं। कहते हैं – “ताल तो भोपाल ताल, और सब तल्‍लैय्यां’’ – लगता है हमारे ‘होशियार’ नगर-नियोजक इसे तल्‍लैय्या में ही तब्दील करके दम लेंगे। अगर ऐसा होता है तो यह भोपाल का दुर्भाग्य ही होगा।

क्या उपचुनाव के जोड-घटाने में उलझे मुख्यमंत्री शिवराजसिंह इस महत्‍वपूर्ण मुद्दे की ओर देख पा रहे हैं? कांग्रेस सरकार की ग़लतियाँ भाजपा नहीं सुधारेगी, तो जनता किसका मुँह देखे और किसे जिताकर वापस विधानसभा में भेजे? यक्ष प्रश्न आज यही है। (सप्रेस)

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